श्री गुरु जम्भेश्वर भगवान आरती

  • आरती (1)

    आरती जय जम्भेश्वर की परम सतगुरू परमेश्वर की । टेर।

    गुरूजी जब पीपासर आये, सकल संतों के मन भाये

    देवता सिद्ध मुनि दिग्पाल, गगन में खूब बजावे ताल

    हुआ उच्छाह, लोहट नर नाह, मगन मन माह

    देव छवि निज सुत सुंदर की । आरती जय...... ।1।

    परम सुख हंसा मन मांहि, प्रभु को गोदी बैठाई

    नगर की मिली सब नारी, गीत गावे दे दे तारी

    अलापे राग, बड़े हैं भाग, पुण्य गये जाग

    धन्य है लीला नटवर की। आरती जय...... ।2।

    चराने गौवों को जावे, चरित्र ग्वालों को दिखलावे

    करे सैनी से सब काजा, कहावे सिद्ध श्री जम्भ राजा

    रहे योगीश, भक्त के ईश, गुरु जगदीश

    पार नहीं महिमा प्रभुवर की। आरती जय...... ।3।

    गुरुजी फि र समराथल आये, पन्थ श्री बिश्रोई चलवाये

    होम जत तप क्रिया सारे, देख सुर नर मुनि सब हारे

    किया प्रचार, वेद का सार, जगत आधार

    सम्मति जिसमें विधि हर की । आरती जय...... ।4।

    गुरुजी अब सेवक की सुणियों, नहीं अवगुण चित्त में धरियो

    शरण निज चरणों की रखियो, पार नैया भव से करियो

    यही है आस, राखियो पास, कीजियो दास

    कहूं नित जय जय गुरुवर की । आरती जय...... ।5।

  • आरती (2)

    आरती कीजे गुरु जम्भ जती की भगत उबारण प्राण पति की।

    पहली आरती लोहट घर आए बिन बादल प्रभु इमिया झुराए ।

    दूसरी आरती पीपासर आए, दूदोजी ने परचो दिखाए।

    तीसरी आरती समराथल आए, पूल्होजी ने स्वामी सुरग दिखाए।

    चोथी आरती अनवी निवाए, भूंच लोक प्रभु पवित्र कहाए।

    पांचवी आरती उदोजन गावे, बास बैकुण्ठ अमर पद पावे।

  • आरती (3

    ओ३म जय ईश्वर देवा, स्वामी जय ईश्वर देवा । टेर।

    पारब्रह्म परमेश्वर मुक्ति फ ल देवा ।

    भगत हेत हरि आप निरंजन, छिन छिन रूप धरे ।

    शेष महेश ब्रह्मादिक, चरणों में शीष धरे ।।1।।

    सतयुग में प्रहलाद भक्त को, विष्णु दरस दियो ।

    खम्भ फ ाड़ हरि आए, नरसिंह रूप कियो ।। 2।।

    त्रेता में हरिश्चन्द्र राव को, पूरा अजमाया ।

    रूप चतुर्भुज धर के, दरसण दिखलाया ।। 3।।

    द्वापर पांचु पाण्डु, संग कुन्ती माता ।

    कृष्ण रूप धर आए, तूं ही पिता माता ।।4।।

    केवलि अवतार धार गुरु,समराथल आए ।

    जोति स्वरूप विराजे, पापी थररराए ।। 5।।

    जगतपति जगदीश की आरती, जो कोई गावे ।

    हरिभज हेत हरि से, अंत सुरग जावे ।। 6।।

  • आरती (4)

    आरती कीजै सिरी महा विष्णु देवा, सुर नर मुनि जन करे सब सेवा । टेर ।

    पहली आरती शेष पर लौटे, सिरी महालक्ष्मी चरण पलोटे । 1।

    दूसरी आरती खीर समंदर ध्यावै, नाभि कमल बिरमा उपजायै । 2।

    तीसरी आरती विराट अखंडा, जांके रोम कोटि बिरमंडा । 3।

    चौथी आरती बैकुंठ विलासी, काल अंगूठ सदा अनिवासी । 4।

    पांचवी आरती घट घट वासा, हरि गुण गावै ऊधो दासा । 5।

  • आरती (5)

    आरती कीजै गुरु सिरी जम्भ गुरु देवा, पार न पावै गुरु अगम अभेवा । टेर।

    पहली आरती परम गुरु आवै, तेज पुंज काया दसावे। 1 ।

    दूसरी आरती दैव विराजे, अनंत कला सत गुरु छवि छाजे । 2।

    तीसरी आरती त्रिसूल ढ़ापे, खुधा तिसना निंदरा नहीं व्यापे । 3।

    चौथी आरती चंहू दिस परसै, पैट पूठ नहीं सनमुख दरसै । 4।

    पांचती आरती केवल भगवंता, सबद सुणा जोजन परियंता । 5।

    ऊधो दास आरती गावै, जम्भ गुरुजी को पार न पावै । 6।

  • आरती (6)

    ओ३म जय जगदीश हरे, प्रभु जय जगदीश हरे ।

    भक्त जनों के संकट, क्षण में दूर करे । ओ३म्।

    जो ध्यावे पल पावे, दु:ख विनशे मन का । प्रभु।

    सुख सम्पति घर आवे, कष्ट मिटे तन का । ओ३म्।

    माता-पिता तुम मेरे, शरण गहूं किसकी । प्रभु।

    तुम बिन और न दूजा, आस करूं जिसकी । ओ३म्।

    तुम पूर्ण परमात्मा, तुम अन्तर्यामी । प्रभु।

    पारब्रह्म परमेश्वर, तुम सबके स्वामी । ओ३म्।

    तुम करूणा के सागर, तुम पालनकत्र्ता। प्रभु।

    मैं मूर्ख खलकामी, कृपा करो भत्र्ता । ओ३म्।

    तुम हो एक अगोचर, सबके प्राणपति। प्रभु ।

    किस विधि मिलूं दयामय, तुमको मैं कुमति । ओ३म्।

    दीनबन्धु दु:खहत्र्ता, तुम ठाकुर मेरे। प्रभु।

    अपने हाथ उठायो, द्वार पड़ा तेरे । ओ३म्।

    विषय विकार मिटाओ, पाप हरो देवा। प्रभु।

    श्रद्धा भक्ति बढ़ाओ, संतन की सेवा । ओ३म्।

    जगदीश स्वामी की आरती जो कोई गावे। प्रभु।

    भणत शिवानंद स्वामी, वांछित फ ल पावे । ओ३म्।

    ओ३म जय जगदीश हरे, प्रभु जय जगदीश हरे ।

    भक्त जनों के संकट, क्षण में दूर करे । ओ३म्।

  • आरती (7)

    आरती हो जी समराथल देव,विष्णु हर की आरती जै ।

    आरती करे हांसलदे माय, विष्णु हर की आरती जै। टेर।

    सुर तेतीसों सेवक जांके, इन्द्रादिक सब देव,

    ज्योति सरूपी आप निरंजन,कोइयक जानत भेव ।

    पूर्ण सिद्ध जम्भगुरु स्वामी अवतरे केवलि एक,

    अंधकार नाशन के कारण, हुए हुए आप अलेख ।

    समराथल हरि आन विराजे, तिमिर भयो सब दूर,

    सांगा राणा और नरेशां, आए सकल हजूर ।

    समराथल की अद्भुत शोभा, वरणी न जात अपार

    संत मण्डली निकट विराजे, निर्गुण शब्द उचार ।

    वर्ष इक्यावन देव दया कर, कीन्हों पर उपकार,

    ज्ञान ध्यान के शब्द सुणाये, तारण भवजल पार ।

    पंथ जाम्भाणो सत कर जाणो, यह खाण्डे की धार,

    सत प्रीत सूं करो कीर्तन, इच्छा फ ल दातार ।

    आन पंथ को चित्त से टारो, जम्भेश्वर उर ध्यान ।

    होम जाप शुद्ध भाव सो कीजो, पावो पद निर्वाण ।

    भक्त उधारण काज संवारण, जम्भगुरु निज नाम

    विघ्न निवारण शरण तुम्हारी, मंगल के सुख धाम ।

    लोहट नंदन दुष्ट निकन्दन, जम्भगुरु अवतार

    ब्रह्मानंद शरण सतगुरु की आवागवण निवार ।

  • आरती (8)

    आरती कीजै गुरु जम्भ तुम्हारी, चरण शरण मोहि राख मुरारी । टेक।

    पहली आरती उन मुन कीजै, मन वच करम चरण चित दीजै । 1।

    दूसरी आरती अनहद बाजा, सरवण सुणा प्रभु सबद अवाजा । 2।

    तीसरी आरती कंठसुर गावै, नवधा भगति प्रभु प्रेम रस पावै। 3।

    चौथी आरते हिरदे में पूजा, आतम देव प्रभु और नहीं दूजा । 4।

    पांचवी आरती प्रेम परकाशा, कहत ऊदो साधो चरण निवासा । 5।

  • आरती (9)

    संध्या सुमरण आरती ,भजन भरोसै दास |

    मनसा वाचा कर्मणा , सतगुरु चरण निवास ||

    पीपासर प्रगटे प्रभु , द्वादस कारण देव |

    ब्रहमदिक् पावे नहीं ,अद्भुत जांको भेव ||

    शीश धरणी धर करत हूँ नमस्कार सौ वार |

    इष्ट देव मम जम्भ गुरु ,लीला हित अवतार ||

  • आरती -10

    ओ३म् शब्द सोऽहं ध्यावे, स्वामी शब्द सोऽहं ध्यावे ।

    धूप दीप ले आरती निज हरि गुण गावे ।

    मंदिर मुकुट त्रिशुल ध्वजा, धर्मों की फ हरावे ।

    झालर शंख टिकोरा, नौपत घुररावे ।

    तीर्थ तालवे गुरु की समाधि, परसे सुरग जावे ।

    अड़सठ तीरथ को फ ल, समराथल पावे ।

    मंझ फ ागण शिवरात, जातरी रलमिल सब आवे ।

    झिगमिग जोत समराथल, शिम्भू के मन भावे ।

    धर्मी करे आनंद भवन पर, पापी थररावे ।

    राजव शरण गुरु की, क्यूं मन भटकावे ।

अखिल भारतीय बिश्नोई महासभा

“सिर साटे रुख रहे तो भी सस्तो जाण”

अमृता देवी गुरू जांभोजी महाराज की जय बोलते हुए सबसे पहले पेड़ से लिपट गयी, क्षण भर में उनकी गर्दन काटकर सिर धड़ से अलग कर दिया. फिर तीनों पुत्रियों पेड़ से लिपटी तो उनकी भी गर्दनें काटकर सिर धड़ से अलग कर दिये.