सर्वविधित हैं कि गाँव पीपासर में १५०१ से १५०६ तक भीषण अकाल था। इस क्षैत्र के पुशओं तथा मनुष्यों का जीना मुश्किल हो गया था। गाँव के लोग पीपासर के ठाकुर लोहटजी के वहां इकट्टे हुए ,और कहीं गोवल जाने की तैयारी करने लगे | इतने में एक द्रोणापुर का एक राहगीर वहां से गुजर रहा था उसने पीपासर के लोगो को बताया की गाँव द्रोणापुर में बहुत अच्छी बरसात हुई हैं आप गोवल लेकर वहां चले जाएँ | यह समाचार सुनते ही नगर के सभी नर-नारी द्रोणापुर की और प्रस्थान कर दिया |लोहट जी द्रोणापुर के ठाकुर मोकमसिंह भाटी के वहां चले गए जो लोहट जी के ससुर थे इस प्रकार पीपासर के लोग वहां पर खुशी से रहने लगे तथा अपनी गायें चराने लगे |एक दिन की बात कि गाँव द्रोणापुर में भंयकर तूफान आने के कारण लोहट जी कि गायें बिछुड़ गई और रातभर बरसात के बाद सुबह प्रात: काल लोहट जी गायों को ढूढ़ने का विचार करके वहां से चल दिए ,थोड़ी दूर गए ही थे कि उनके सामने जोधा जाट अपने पुत्र के साथ खेत में बीज बोने जा रहे थे , तभी उनके सामने लोहट जी आ गए | लोहट जी को सामने आते देख कर जोधो जाट वापस अपने घर की ओर चल दिया | जोधे जाट को वापस जाते देख लोहट जी पूछा "म्हाने देख पाछो कइयां जावे "| तब जोधे जाट ने कहा कि लोहट जी एक तो आप गाँव के ठाकुर हो ,अत: जब बुवाई करने जाते वक्त अगर सर पर बिना पगड़ी के गाँव के ठाकुर मिल जाये तो सुगुन अच्छा नहीं माना जाता और दूसरी बात आप गाँव के जंवाई हो ,अत: बुवाई करने जाते समय अगर सामने अगर गाँव का जंवाई मिल जाये तो भी सुगुन अच्छा नहीं माना जाता | तीसरी बात आप बांज्या हो आपरे कोई संतान नहीं अगर बुवाई पर जाते समय बांज्या का मिलना भी अपसुकुन होता हैं जोधे के मुख से बांज्या सुनते ही लोहट जी के ह्रदय को गहरा आघात पहुंचा | संतान प्राप्ति के लिए लोहट जी अन्न -जल त्याग कर भगवान से प्रार्थना करने वहीँ पर बैठ गए | इस प्रकार लोहट जी छ: मास तक लगातार तपस्या करते रहे |एक दिन सम्वत् 1507 ईस्वी में विष्णु भगवान ने लोहट जी पंवार को साधु के वेष में दु्रणपुर (छापर) के जंगल में दर्शन देकर भिक्षा मांगी तथा बिना ब्याई बछिया का दुध पिया तथा पुत्र वरदान दिया एवं फिर गोवलबास में माता हंसा देवी को साधु वेष में दर्शन दिया, भिक्षा प्राप्त की तथा पुत्र वरदान दिया ।
सम्वत् 1507 ईस्वी में जिस प्रकार से विष्णु भगवान ने लोहट जी पंवार को साधु के वेष में दु्रणपुर (छापर) के जंगल में दर्शन देकर भिक्षा मांगी तथा बिना ब्याई बच्छी का दुध पिया तथा पुत्र वरदान दिया था एवं गोवलबास में माता हंसा देवी को साधु वेष में दर्शन दिया, भिक्षा प्राप्त की तथा पुत्र वरदान दिया था तथा विष्णु भगवान ने सतयुग के भक्त प्रहलाद को दिये वचन को पूरा करने तथा बारह करोड़ जीवों का उद्धार करने के लिए एवं द्वापर युग में कृष्ण भगवान द्वारा नन्द बाबा एवं यशोदा माता को दिये वचनों को पूरा करने के लिए कलयुग में पिता श्री लोहट जी पंवार एवं माता हंसा देवी के घर ग्राम पीपासर में सम्वत १५०८ भादवा वदी अष्टमी वार सोमवार के दिन कृतिका नक्षत्र में जोधपुर के पास नागौर नामक परगने पीपासर गांव में हुआ था।इनकी जाति पंवार वंशीय राजपूत थी। इनके पिताजी का नाम लोहटजी था जो एक सम्पन्न व्यक्ति थे। इनकी माताजी का नाम हासांदेवी अर्थात हांसलदे था जिनके पिता का नाम मोकमजी भाटी था।श्री गुरु जम्भेश्वरजी भगवान अपने पिताजी के इकलोती संतान थे।सात वर्ष तक मौन रहकर बाल लीला का कार्य किया, । इसलिए इन्हें लोग गूंगा एवं गहला तक कहने लगे थे। मगर वे उस समय कुछ ऐसे कार्य कर देते थे जिसे देखकर लोग चकित रह जाते थे। इसके आधार पर कुछ लोगों ने अनुमान लगाया कि इसी कारण ये जाम्भा (या अचम्भाजी) भी कहे जाने लगे थे।
जाम्भोजी (संक्षिप्त जीवन परिचय)
जन्म : वि. संवत् 1508 भाद्रपद बदी 8 कृष्णजन्माष्टमी को अर्द्धरात्रि कृतिका नक्षत्रमें (सन् 1451)
ग्राम : पींपासर जिला नागौर (राज.)
पिताजी : ठाकुर श्री लोहटजी पंवार
काकाजी : श्री पुल्होजी पंवार(इनको प्रथम बिश्नोई बनाया था।)
बुआ : तांतूदेवी
दादाजी : श्री रावलसिंह सिरदार(रोलोजी) उमट पंवार ये महाराजा विक्रमादित्य के वंश की 42वीं पीढ़ी में थे।
ननिहाल : ग्राम छापर (वर्तमान तालछापर) जिला चुरू (राज.)
माताजी : हंसा (केसर देवी)
नानाजी : श्री मोहकमसिंह भाटी (खिलेरी)
जब ये ७ सात वर्ष की अवस्था में हुए तब इन्हें गाय चराने के काम में लगाया था ये अपनी गायों को अपने आसपास के जंगलों में चराया करते थे। जब ये लगभग १६ सौलह वर्ष के हुए तब इनकी भेंट गुरु गोरखनाथजी से हुई जिनसे की ज्ञान प्राप्त किया था।
श्री गुरु जम्भेश्वरजी री मुंह से निकली शब्दवाणी से सिध्द होता है कि इन्होंने कोई विवाह नहीं किया और अखंड ब्रम्हचारी रहे। जिनके सामने इनके माता पिता को भी झुकना पडा। इनके पिता लोहटजी का देहान्त सम्वत १५४० में हो गया था. तथा कुछ समय पश्चात इनकी माता हांसादेवी भी चल बसी थी।
वैसी दशा में गुरु जम्भेश्वरजी अपनी सम्पूर्ण सम्पत्ति को परित्याग क़र विक्रमी सम्वत् 1542 में समराथल धोरे पर हरी कंकेड़ी के नीचे आसन लगाया तथा 51 वर्ष तक अमृतमयी शब्द वाणी का कथन किया तथा विभिन्न प्रकार के चमत्कार दिखाकर जड़ बुद्धि लोगों को धर्म मार्ग पर लगाकर उनका उद्धार किया। समराथल पर रहते हुए इन्होंने संवत 1542 की कार्तिक वदि अमावस्या सोमवार के दिन विश्नोई संप्रदाय को बीस और नव धर्मो की शिक्षा दी और वेदों और मंत्रों द्वारा पाहाल कलश की स्थापना करके पाहाल रुपी अमृत पिलाया जब से विशनोई समाज प्रारंभ हुआ। उन दिंनो मे इन्होंने अकाल पीडिंतो और गरीबों की अन्न-दान से सहायता करके समाज को अपनाया। इन्होंने बहुत जनसमूहों में उपस्थित होकर सर्व मानव मात्र को मुख्य कर्तव्यों का साक्षात परीक्षात्मानुभव का उपदेश देते समय १२० अनमोल शब्द कहे थे जो आज भी प्रेम पूर्वक हर घर में मन्दिरों में हवन इत्यादि करते समय बोले जाते है।देश विदेशों में भ्रमण करते हुए लोगों को बिश्नोई पंथ का उपदेश दिया |
गांव लालासर में विक्रमी सम्वत् 1593 इस्वी मिंगसर बदी नवमी को अंतर्ध्यान हो गए ।